''अनबन'' मुझसे मेरे मन की..
Thursday, 24 July 2014
Tuesday, 3 December 2013
अज्ञात
प्रिय तुम मधु हो जीवन की,
तुम बिन कैसी मधुशाला?
जिसमे तुम न द्रवित हुए ,
किस काम की है ऐसी हाला?
तुम शब्द हो मेरे भावों के
तुम पर ही मैंने गीत लिखे,
तुमको सोचा तो जग सोचा,
और समर भूमि में प्रीत लिखे,
अवसाद तुम्ही, प्रमाद तुम्ही,
आशा और विश्वास तुम्ही ,
भावों के आपाधापी की
प्रशंसा और परिहास तुम्ही.
तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
शब्द बड़े ही सीमित हैं,
किन भावों का उल्लेख करूँ?
जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.
तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
जब -जब भी तुम शून्य हुए
जीवन कितना निर्जन-निर्जन?
तुम व्यक्त, अव्यक्त या निर्गुण हो,
इसका मुझको अनुमान नहीं,
मेरे बिन खोजे ही मिल जाना,
मैं मानव हूँ हनुमान नहीं.
तुम बिन कैसी मधुशाला?
जिसमे तुम न द्रवित हुए ,
किस काम की है ऐसी हाला?
तुम शब्द हो मेरे भावों के
तुम पर ही मैंने गीत लिखे,
तुमको सोचा तो जग सोचा,
और समर भूमि में प्रीत लिखे,
अवसाद तुम्ही, प्रमाद तुम्ही,
आशा और विश्वास तुम्ही ,
भावों के आपाधापी की
प्रशंसा और परिहास तुम्ही.
तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
शब्द बड़े ही सीमित हैं,
किन भावों का उल्लेख करूँ?
जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.
तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
जब -जब भी तुम शून्य हुए
जीवन कितना निर्जन-निर्जन?
तुम व्यक्त, अव्यक्त या निर्गुण हो,
इसका मुझको अनुमान नहीं,
मेरे बिन खोजे ही मिल जाना,
मैं मानव हूँ हनुमान नहीं.
Wednesday, 27 November 2013
एहसास
बैठा था इंतज़ार में
पागलों कि तरह
चुप चाप
तुम्हारी राहों में;
सोचा था
एक झलक मिल जायेगी
पर
दूर -दूर तक
तुम नजर नहीं आई
न तुम्हारी परछांई.
मेरे लिए
तुमसे होकर,
गुजरने वाली हवा ही
काफी थी;
पर
हवा ने भी मुझसे बेरुखी कर ली,
अनजान से ख्यालों में
खुद को खोता गया,
पर लोगों ने तो
मुझे
एक और नाम दे दिया
''पागल''
क्या करूँ?
किस से कहूँ
कि
ये पागलपन
भी
खुदा कि नेअमत
है,
तुमसे ,
न रब से,
कोई शिकायत
नहीं;
जाने क्यों
टुकड़ों का प्यार
मुझे रास नहीं आता;
और
अधूरे कि आदत नहीं है.
तुम्हारी बेरुखी
भी
तुम्हारी अदा लगती है,
और मेरी जिंदगी
भी
मुझे सजा लगती है.
मेरे जज्बात
तो बस मेरे हैं,
वो मुझे रुलाएं
या तड़पायें,
फर्क पड़ता क्या है?
मेरा क्या?
मझे अब
दर्द भी अपना लगता है,
खुशियां तो
तुम्हारे साथ
कब कि जा चुकी हैं,
अब है तो बस तन्हाई,
हर पल - हर लम्हा.
मेरे गम
और मेरी तन्हाई
हाँ बस यही है
मेरी जिंदगी.
आज एक अर्से के बाद
सुकून मिला
जब किसी ने मुझसे कहा
कि
पत्थरों कि दुनिया में
रहते रहते
इंसान भी पत्थर
हो गए हैं.
पागलों कि तरह
चुप चाप
तुम्हारी राहों में;
सोचा था
एक झलक मिल जायेगी
पर
दूर -दूर तक
तुम नजर नहीं आई
न तुम्हारी परछांई.
मेरे लिए
तुमसे होकर,
गुजरने वाली हवा ही
काफी थी;
पर
हवा ने भी मुझसे बेरुखी कर ली,
अनजान से ख्यालों में
खुद को खोता गया,
पर लोगों ने तो
मुझे
एक और नाम दे दिया
''पागल''
क्या करूँ?
किस से कहूँ
कि
ये पागलपन
भी
खुदा कि नेअमत
है,
तुमसे ,
न रब से,
कोई शिकायत
नहीं;
जाने क्यों
टुकड़ों का प्यार
मुझे रास नहीं आता;
और
अधूरे कि आदत नहीं है.
तुम्हारी बेरुखी
भी
तुम्हारी अदा लगती है,
और मेरी जिंदगी
भी
मुझे सजा लगती है.
मेरे जज्बात
तो बस मेरे हैं,
वो मुझे रुलाएं
या तड़पायें,
फर्क पड़ता क्या है?
मेरा क्या?
मझे अब
दर्द भी अपना लगता है,
खुशियां तो
तुम्हारे साथ
कब कि जा चुकी हैं,
अब है तो बस तन्हाई,
हर पल - हर लम्हा.
मेरे गम
और मेरी तन्हाई
हाँ बस यही है
मेरी जिंदगी.
आज एक अर्से के बाद
सुकून मिला
जब किसी ने मुझसे कहा
कि
पत्थरों कि दुनिया में
रहते रहते
इंसान भी पत्थर
हो गए हैं.
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